भारत भूमि सदा से ही संतों के पावन सानिध्य से अभिभूत हुई है , यही कारण है 200 साल से अधिक विधर्मियों ने इस देश पर शासन किया किन्तु सनातन संस्कृति का बाल भी बांका नहीं कर पाए , इसी क्रम में वर्तमान समय में जिन संतों की कृपा से लाखों लोगो ने जीवन को जीना का नया नजरिया पाया है उनमें प्रमुख है श्री प्रेमानंद जी महाराज (“premanand ji maharaj”) जिन्होंने 13 वर्ष की आयु में ही घर त्याग कर पूर्ण वैराग्य वेष धारण किया और आज बालक से लेकर वृद्ध तक इनके अनुयायी बन गए हैं।
प्रेमानंद जी महाराज का बचपन ( Childhood of premanand ji maharaj )
प्रेमानंद जी महाराज का जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ. प्रेमानंद जी के बचपन का नाम अनिरुद्ध कुमार पांडे है. इनके पिता का नाम श्री शंभू पांडे और माता का नाम श्रीमती रामा देवी है। इनके दो भाई और चार बहनें हैं , सबसे बड़े भाई का नाम घनश्याम पांडे और सबसे छोटे भाई का नाम गणेश पांडे है। प्रेमानंद जी महाराज ने कक्षा 9 तक विद्यालय में अपने गाँव में ही शिक्षा ली उसके बाद एक ये घर से निकल पड़े। आखिर क्या कारण था की 13 वर्ष के बालक के मन ने सन्यास लेनी की ठानी ?इसका उत्तर आगे बताएँगे।
प्रेमानंद जी महाराज के पिताजी की अद्धभूत बात
प्रेमानंद जी महाराज जी के पिताजी की रहनी एक संत जैसी ही थी इनकी आय का केवल एक ही साधन किसानी था। जब भी ये खेत में जाते तो हमेशा नंगे पाँव ही जाते चाहे हल चलाना हो या और कुछ, कभी भी सिलवा के इन्होने वस्त्र नहीं पहने , इनके घर में कभी भी प्याज लहसुन तक नहीं बनता था। परिवार की तो क्या कहे पूरे मोहल्ले में कहीं प्याज लहसुन नहीं बनता था। इनके पास एक झोली थी जिसमे ये गीता जी , रामायण जी , गुरूजी की पादुका और गंगाजल रखते थे। इनके पास एक गोपाल जी थे , खेत में ही इन्हे भोग लगा कर फिर किसी संत का इंतजार करते अगर कोई आता तो पहले उन्हें भोग लगाते फिर अपना खाते।
प्रेमानद जी महाराज जी का सन्यास लेना (premanand ji maharaj
जैसा की आपको ज्ञात ही है की प्रेमानंद जी के परिवार का परिवेश सात्विक और आध्यात्मिक ही था , इन्हे बचपन से ही भगवान की पूजा पाठ से लगाव था। बचपन में इन्होने अनेक चालीसा का पाठ किया था , नित्य – प्रतिदिन ये मंदिर जाकर भगवान शिव पार्वती की पूजा में तल्लीन रहते और शिव चालीसा , हनुमान चालीसा , दुर्गा चालीसा आदि कई चालीसाओं का पाठ करते। इनके घर में अथिति के लिए घर के आंगन में खटिया थी जिसमे संत आकार निवेश करते थे। हर सप्ताह किसी न किसी संत का आगमन होता रहता और उनका सत्संग होता रहता , महाराज जी उनसे सवाल जवाब करते रहते इस तरह धीरे – धीरे इनके मन में वैराग्य उतपन्न होने लगा और एक दिन इन्होने अपनी माँ को बताया की अब इन्हे संसार में रहना अच्छा नहीं लगता ये भगवान को पाने के लिये संन्यास लेना चाहते हैं और उसी रात को ये घर छोड़ कर चले गए और शिवालय में आकर रुके जहाँ हुआ इनके साथ एक अद्धभुत चमत्कार।
प्रेमानंद जी महाराज के साथ हुआ शिवालय में चमत्कार
रात तीन बजे प्रेमानंद जी महाराज घर से निकले थे , 15 किलोमीटर दूर नंदेश्वर महादेव जी के मंदिर में आकर महाराज जी रुके। उस समय महाराज जी आयु मात्र 13 वर्ष ही थी , बालपन का ३-४ समय खाने का अभ्यास और रात से कुछ खाया नहीं था जिस कारन उन्हें भूख सताने लगी और कई प्रश्न महाराज जी के मस्तिष्क में घूमने लगे की कहीं घर से निकल कर गलती तो नहीं की आदि – आदि पर महाराज जी के मन में भले ही प्राण त्याग दूँ पर घर नहीं जाऊँगा तभी दोपहर में एक व्यक्ति अपने कमंडल में दही लेकर आते हैं और कहते हैं आज वो संत नहीं दिखाई दे रहे हैं जिनके लिए में दही लाया था अच्छा आज ये दही आप पी लो मैं ये दही वापस नहीं ले जाऊंगा। रात के भूखे बालक ने पूरी दही पी ली और उसके बाद शिवलिंग से जाकर लिपट गए प्रभु अब मुझे पूरा भरोसा हो गया हे आप मेरे साथ हर -दम कदम कदम पर हो।
प्रेमानंद जी महाराज का वाराणसी आगमन
शिवालय से महाराज जी अपने गुरु जी के आश्रम में आए और यहाँ उन्होंने कुछ समय व्यतीत किया , यहाँ इनके माता-पिताजी भी इन्हे लेने आये पर इन्होने जाने से मना कर दिया। इसके कुछ समय बाद यहाँ महाराज जी को अच्छा नहीं लगा और इन्होने अकेले रहने का निर्णय किया। ये गंगा जी के घाटों में अकेले रहने लगे। सर्दी हो चाहे गर्मी अथवा बरसात पूरे वर्ष गंगा जी के घाटों पर ही इन्होने निवास किया। एक सन्यासी के रूप में, उन्होंने एक सख्त दिनचर्या का पालन किया, जिसमें गंगा में दिन में तीन बार स्नान करना और तुलसी घाट पर भगवान शिव और माता गंगा की प्रार्थना करना शामिल था। उन्होंने दिन में केवल एक बार भोजन करने का अभ्यास किया और भोजन के लिए अपने निर्धारित स्थान पर 10-15 मिनट तक प्रतीक्षा करते थे। यदि उन्हें कुछ नहीं मिलता था, तो वे गंगाजल पीकर अपना निर्वाह करते थे। स्वामी प्रेम आनंद ने एक सन्यासी के रूप में अपने जीवन के दौरान कई दिन उपवास किए।
एक दिन, एक अनजान संत उनसे मिलने आए और उन्हें श्री हनुमान धाम विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के बारे में बताया। इस कार्यक्रम में दिन में श्री राम शर्मा जी द्वारा श्री चैतन्य लीला का वर्णन और रात में रासलीला का आयोजन किया गया था, जिसमें स्वामी प्रेम आनंद को आमंत्रित किया गया था। शुरुआत में उन्होंने मना कर दिया, लेकिन संत ने जोर दिया और अंततः स्वामी प्रेमानंद जी महाराज मान गए। उन्होंने लगभग एक महीने तक चलने वाले चैतन्य लीला और रासलीला कार्यक्रम में भाग लिया और इसका भरपूर आनंद लिया।
कार्यक्रम खत्म होने के बाद, स्वामी प्रेमानंद जी महाराज रासलीला को और देखने के लिए लालायित हो गए। उन्होंने उन्हीं संत से संपर्क किया जिन्होंने उन्हें आमंत्रित किया था और अपनी सेवा प्रदान करने के बदले उनके साथ रासलीला देखने की इच्छा व्यक्त की।
संत ने उत्तर दिया, “वृन्दावन आइए, जहाँ आप प्रतिदिन रासलीला देख सकते हैं।” इन शब्दों ने स्वामीप्रेमानंद जी महाराज में वृन्दावन जाने की इच्छा जगाई और शिव जी की प्रेरणा से इन्होने वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया।
वृन्दावन में महाराज जी की राधाबल्लभ संप्रदाय में दीक्षा
वृन्दावन में महाराज जी ने राधाबल्लभ सम्रदाय के आचार्य जी से दीक्षा ली और राधा माधव के अनन्य उपासक बन गए।
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बेलपत्ते ले आओ सारे
चुन चुन लाई भोला फूल बेल पाती
मैं कैसे कावड़ चढ़ाऊं ओ भोले भीड़ बड़ी मंदिर में
बालू मिट्टी के बनाए भोलेनाथ
जग रखवाला है मेरा भोला बाबा
कैलाश के भोले बाबा
कब से खड़ी हूं झोली पसार
भोले नाथ तुम्हारे मंदिर मेंअजब नजारा देखा है —
शिव शंभू कमाल कर बैठे
गोरा की चुनरी पे ओम लिखा है
FAQs
वृंदावन की कहानी क्या है?
वृन्दावन राधा कृष्ण का नित्य धाम है , भगवान श्री कृष्ण कहते हैं “वृन्दावन त्यजम् पाद एकम न गचछति ” मैं वृन्दावन को छोड़ कर एक कदम भी नहीं जा सकता। वृन्दावन भगवन का नित्य गोलोक धाम से लाया गया है।
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हमने हर एक ब्लॉग के साथ रामचरितमानस की कुछ चौपाइयाँ दी हैं और मुख्य चौपाइयों को हाईलाइट किया है ,आप चाहें तो उन्हें भी पढ़ सकते हैँ
1.126
चौपाई
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ।।
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा।।
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी।।
रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना।।
करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा।।
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना।।
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी।।
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू।।
दोहा/सोरठा
सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन।।126।।
1.127
चौपाई
भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा।।
नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई।।
मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी।।
सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा।।
तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं।।
मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए।।
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं।।
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ।।
दोहा/सोरठा
संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान।।127।।
1.128
चौपाई
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई।।
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए।।
एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना।।
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा।।
हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता।।
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया।।
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे।।
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया।।
दोहा/सोरठा
रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान।।128।।