कैलाश के भोले बाबा

शिव जी के भजन हिंदी में कैलाश के भोले बाबा

कैलाश के भोले बाबा

ब्याह के लाए पार्वती

गौरा जी ने हंसकर पूछा जटा में तेरे क्या है जी

जटा में मेरे बह रहीं गंगा खूब नहा लो पार्वती 

गौरा जी ने हंसकर पूछा सिर पर तेरे क्या है जी

सिर पर मेरे चंद्र विराजे दर्शन कर लो पार्वती

गौरा जी ने हंसकर पूछा गले में तेरे क्या है जी

गले में मेरे कंठी माला खूब जपो तुम पार्वती

गोरा जी ने हंसकर पूछा हाथ में तेरे क्या है जी \

हाथ में मेरे डमरू बजता खूब बजा लो पार्वती

गौटा जी ने हंसकर पूछा गोद में तेरे क्या है जी

गोद में मेरे गणपति लाला खूब खिलाओ पार्वती

गोरा जी ने हंसकर पूछा अंग में तेरे क्या है जी

संग में मेरे नंदी बाबा खूब घूम लो पार्वती

शिव जी के भजन हिंदी में कैलाश के भोले बाबा

कहानी: गुरु गूंगे, गुरु बावरे, गुरु के रहिये दास! –

★एक बार विष्णु जी से मिलने गए। भगवान ने उनका बहुत सम्मान किया। जब नारद जी वापिस गए तो विष्णुजी ने कहा हे लक्ष्मी जिस स्थान पर नारद जी बैठे थे। उस स्थान को गाय के गोबर से लीप दो।

★जब विष्णुजी यह बात कह रहे थे तब नारदजी बाहर ही खड़े थे। उन्होंने सब सुन लिया और वापिस आ गए और विष्णु भगवान जी से पुछा हे भगवान जब मै आया तो आपने मेरा खूब सम्मान किया पर जब मै जा रहा था, तो आपने लक्ष्मी जी से यह क्यों कहा कि जिस स्थान पर नारद बैठा था उस स्थान को गोबर से लीप दो।

★भगवान ने कहा हे नारद मैंने आपका सम्मान इसलिए किया क्योंकि आप देव ऋषि है और मैंने देवी लक्ष्मी से ऐसा इसलिए कहा क्योंकि आपका कोई गुरु नहीं है। आप निगुरे है। जिस स्थान पर कोई निगुरा बैठ जाता है वो स्थान गन्दा हो जाता है।

★यह सुनकर नारद जी ने कहा हे भगवान आपकी बात सत्य है पर मै गुरु किसे बनाऊ?

नारायण बोले: हे नारद !धरती पर चले जाओ जो व्यक्ति सबसे पहिले मिले उसे अपना गुरु मानलो।

★नारद जी ने प्रणाम किया और चले गए। जब नारद जी धरती पर आये तो उन्हें सबसे पहले एक मछली पकड़ने वाला एक मछुवारा मिला। नारद जी वापिस नारायण के पास चले गए और कहा महाराज वो मछुवारा तो कुछ भी नहीं जानता मै उसे गुरु कैसे मान सकता हूँ?

★यह सुनकर भगवान ने कहा नारद जी अपना प्रण पूरा करो। नारद जी वापिस आये और उस मछुवारे से कहा मेरे गुरु बन जाओ। पहले तो मछुवारा नहीं माना बाद में बहुत मनाने से मान गया। मछुवारे को राजी करने के बाद नारद जी लौट कर भगवान के पास गए और कहा हे भगवान। मेरे गुरूजी को तो कुछ भी नहीं आता वे मुझे क्या सिखायेगे?

★यह सुनकर विष्णु जी को क्रोध आ गया और उन्होंने कहा: हे नारद गुरु निंदा करते हो जाओ मै आपको श्राप देता हूँ कि आपको ८४ लाख योनियों में घूमना पड़ेगा।

★यह सुनकर नारद जी ने दोनों हाथ जोड़कर कहा हे भगवान। इस श्राप से बचने का उपाय भी बता दीजिये।भगवान नारायण ने कहा इसका उपाय जाकर अपने गुरुदेव से पूछो।

★नारद जी ने सारी बात जाकर गुरुदेव को बताई। गुरूजी ने कहा ऐसा करना भगवान से कहना ८४ लाख योनियों की तस्वीरे धरती पर बना दे फिर उस पर लेट कर गोल घूम लेना और विष्णु जी से कहना ८४ लाख योनियों में घूम आया मुझे क्षमा कर दीजिए आगे से गुरु निंदा नहीं करूँगा।

★नारद जी ने विष्णु जी के पास जाकर ऐसा ही किया उनसे कहा ८४ लाख योनिया धरती पर बना दो और फिर उन पर लेट कर घूम लिए और कहा नारायण मुझे छमा कर दीजिए आगे से कभी गुरु निंदा नहीं करूँगा। यह सुनकर विष्णु जी ने कहा देखा जिस गुरु की निंदा कर रहे थे उसी ने मेरे श्राप से बचा लिया। ★अतः नारदजी गुरु की महिमा अपरम्पार है।

“गुरु गूंगे गुरु बाबरे, गुरु के रहिये दास,

गुरु जो भेजे नरक को, स्वर्ग कि रखिये आस !”

जब श्रीकृष्ण ने लूट लिया एक डाकू का दिल*

पुराने समय की बात है। एक धनिक के घर श्रीमद्भागवत की कथा चल रही थी। घर के सब लोग कथामृत का पान कर रहे थे। उसी समय अवसर का लाभ उठाकर एक डाकू उस घर में घुस गया। भगवान की कुछ ऐसी लीला हुई कि उसे बहुत खोजने पर भी कुछ न मिला। कथावाचक पंडित जी उस समय भगवान श्रीकृष्ण के बचपन की मधुर लीलाएँ सुना रहे थे। अचानक कथा के ये अंश डाकू के कानों में भी पड़े-

“यशोदा मैया ने अपने प्यारे कन्हैया को माखन-मिश्री और भिन्न-भिन्न प्रकार के पकवानों का कलेऊ कराकर बड़े चाव से सजाया। लाखों-करोड़ों रुपयों के गहने, हीरे-मोती से जड़े सोने के आभूषण अपने बच्चों को पहनाए। कृष्ण और बलराम के सोने के मुकुट, हार और बाजूबंद में मणियाँ जगमगा रही थीं। फिर यशोदा मैया ने बड़े प्रेम से कृष्ण और बलराम का सिर सूँघकर उन्हें गौ चराने के लिए विदा किया।”

कथा की ये बातें सुनकर डाकू खुशी से फूला न समाया। कथा समाप्त होने पर वह पंडित जी के पीछे-पीछे चल पड़ा। जब सुनसान सड़क आई तो उसने कड़कती आवाज में कहा- “पंडित जी! रुक जाओ!” पंडित जी के पास दक्षिणा का माल और रुपए थे। इसलिए वे तुरंत भाग खड़े हुए। डाकू ने दौड़कर उन्हें पकड़ लिया और बोला- “पंडित जी! तुरंत मुझे उन कृष्ण और बलराम के घर का पता बता दो, जिनके बारे में अभी आप कथा में बोल रहे थे कि उनकी माँ उन्हें लाखों-करोड़ों रुपयों के गहनों से सजाकर जंगल भेजती है। यदि आपने मुझे उनका पता नहीं बताया तो इस लाठी से आपके सिर के टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा।”

पंडित जी ने डाकू से कृष्ण और बलराम का पता पूछने का कारण पूछा। उसने कहा- “मैं डाकू हूँ और उन दोनों के गहने लूटना चाहता हूँ। यदि मेरे हाथ उनके गहने लगे, तो मैं उनमें से आपको भी कुछ दे दूँगा।” पंडित जी समझ गए कि डाकू बलवान है, पर नादान है। उन्होंने कुछ हिम्मत करके कहा- “कृष्ण और बलराम का पता तो मेरी पुस्तक में है, जो मेरे डेरे पर है। तुम मेरे साथ चलो। मैं वहाँ पुस्तक देखकर पता बता दूँगा।”

डेरे पर पहुँचकर पंडित जी ने श्रीमद्भागवत निकाली और पढ़ना शुरू किया- “कृष्ण और बलराम के दर्शन प्रायः यमुना के तट पर वृंदावन में कदंब वृक्ष के नीचे होते हैं।” डाकू ने उनसे कृष्ण बलराम के स्थान की दूरी पूछी। पंडित जी ने कहा, “सीधे उत्तर दिशा की ओर चलते जाओ। जहाँ भी नदी के किनारे कदंब का वृक्ष हो, पास में एक छोटा-सा पर्वत हो, घना जंगल हो, गौओं के चरने का मैदान हो और वंशी की मधुर धुन सुनाई पड़े, तो समझ लो कि उसी स्थान पर वे दोनों बालक गौएँ चराने आते हैं।”

डाकू ने पूछा, “पंडित जी! क्या वे दोनों प्रतिदिन वहाँ गौ चराने आते हैं और उनका आने का समय क्या है?” पंडित जी बोले, “वे दोनों तो वहाँ प्रतिदिन प्रातःकाल में आते हैं और उस समय थोड़ा-थोड़ा अँधेरा भी छाया रहता है।” डाकू ने पूछा, “पंडित जी! आपके हिसाब से उनके पास कुल मिलाकर लगभग कितने रुपए के गहने होंगे?” पंडित जी ने कहा, “अरे! इसकी तो कोई गिनती नहीं है। करोड़ों अरबों से भी ज्यादा।” यह सुनकर डाकू प्रसन्नता से झूम उठा और पंडित जी को प्रणाम कर चल पड़ा।

पंडित जी मन ही मन हँसे। तभी उन्हें यह चिंता व्यापी कि तीन-चार दिन तो डाकू कृष्ण बलराम को खोजने का प्रयत्न करेगा, किंतु उनके न मिलने पर वह यहाँ आकर उन पर अत्याचार न करने लगे। तभी पंडितजी के दिमाग में उपाय सूझा कि वे उसे दूसरा रास्ता बतला देंगे। वह तीन-चार दिन फिर भटकेगा और तब तक पंडित जी अपनी कथा समाप्त कर अपने गाँव चलते बनेंगे।

उधर डाकू अपने घर पहुँचा। उसके दिमाग में गहनों से लदे बालकों को ढूंढने की धुन सवार हो गई। उसके मन में कृष्ण बलराम का नाम गूँजने लगा और आँखों के सामने गहनों से लदे दो सुंदर बालक नाचने लगे। रात के अँधेरे में डाकू अपने कंधे पर लाठी रखकर निकल पड़ा ताकि प्रातःकाल होते-होते उस स्थान पर पहुँच सके जहाँ कृष्ण और बलराम प्रतिदिन गौएँ चराने आते हैं। उसके होठों से अनजाने में ही दोनों नंदकुमारों कृष्ण और बलराम का नाम निकल रहा था।

चलते-चलते डाकू को कल-कल बहती हुई एक नदी मिली। ढूंढने पर उसे उसके आसपास कदंब का एक वृक्ष भी मिल गया। भगवान श्रीकृष्ण की लीला से उसी स्थान पर वृन्दावन प्रकट हो गया। डाकू को पास ही छोटा-सा पर्वत, घना जंगल और गौओं के चरने का मैदान भी दिखाई देने लगा। डाकू की खुशी का ठिकाना न रहा। वह कदंब के वृक्ष पर चढ़ गया और सबेरा होने की प्रतीक्षा करने लगा। धीरे-धीरे सूर्यनारायण भगवान पर्वत के पीछे से उदित हुए। उनकी रंग-बिरंगी किरणें नदी की लहरों के ऊपर नर्तन करने लगीं। किंतु डाकू को अभी वंशी का मधुर स्वर सुनाई नहीं पड़ा। अतः वह और भी चौंकन्ना होकर बैठ गया। उसका हृदय वंशी का स्वर सुनने और आभूषणों से सजे-धजे कृष्ण बलराम को देखने के लिए रह-रहकर तड़पने लगा।

डाकू की प्रतीक्षा की लंबी घड़ियाँ समाप्त हुईं। उसे कहीं बहुत दूर से वंशी की सुरीली लहर आती सुनाई पड़ी। वंशी का स्वर जैसे ही डाकू के कान के रास्ते उसके हृदय में प्रविष्ट हुआ, वह आनंद के आवेश में अपनी सुध-बुध खो बैठा और मूर्च्छित होकर वृक्ष से नीचे गिर पड़ा। कुछ क्षण बाद उसकी मूर्च्छा दूर हुई, तो वह उठ खड़ा हुआ। अचानक उसने देखा कि पास का घना जंगल प्रकाश से जगमगा रहा है। प्रकाश के पुंज में श्याम और गौर वर्ण के दो सुंदर बालक खड़े हुए मुस्करा रहे हैं। गौएँ और ग्वाल उनसे आगे निकल गए हैं। दोनों बालकों ने भाँति-भाँति के सुंदर आभूषण पहने हुए हैं।

डाकू ने कृष्ण बलराम को देखा तो मंत्रमुग्ध होकर झूम उठा। वह मन ही मन बोला, “ये दोनों निश्चय ही वही बालक हैं, जिनके बारे में पंडित जी कथा में बता रहे थे। हाय! इतने नन्हे सुकुमार सुंदर बालकों को इनके माता-पिता ने कैसे गौएँ चराने जंगल में भेज दिया? इनसे गहने छीनने का नहीं, बल्कि इन्हें तो और भी गहनों से सजाने का मन करता है।”

तभी डाकू के गंदे संस्कार आगे आए और बोले, “यदि तू इनसे गहने नहीं छिनेगा, तो तू आखिर यहाँ आया क्यों है?” डाकू लाठी लेकर कृष्ण-बलराम के पीछे दौड़ा और कड़कती हुई आवाज में बोला, “जहाँ खड़े हो, वहीं रुक जाओ! सारे गहने निकालकर मुझे दे दो।” लीलानटनागर बाल श्रीकृष्ण भयभीत होकर ‘माँ-बाबा’ की जोर-जोर से पुकार करने लगे। डाकू ने जैसे ही झपटकर अपने हाथ से उनका मुँह दबाकर उनकी आवाज बंद करनी चाही, तभी उनके स्पर्श से उसके शरीर में बिजली दौड़ गई और वह बेसुध होकर गिर पड़ा।

जब उसे होश आया तो वह श्रीकृष्ण बलराम से बोला, “अरे बालको! तुम दोनों कौन हो? मैं ज्यों-ज्यों तुम्हें देखता हूँ, तुम मुझे त्यों-त्यों और अधिक सुंदर और मनोहर क्यों दिखाई दे रहे हो? हाय! तुम्हारा स्पर्श कितना मधुर और शीतल है! तुम्हारे स्पर्श से और तुम्हें देखकर मुझे रोमांच क्यों हो रहा है? मुझे रोना क्यों आ रहा है? क्या तुम दोनों कोई देव हो?”

श्रीकृष्ण मुस्कराते हुए बोले, “नहीं! हम मनुष्य हैं और व्रज के राजा नंदबाबा के लड़के हैं।” डाकू बोला, “मैं तुम्हारे आभूषण नहीं छिनूँगा। केवल एक बार अपने चरण मेरे सिर पर धर दो। मुझे अपने हाथों का चुंबन करने दो। क्या तुम प्रतिदिन इसी रास्ते से जाकर मुझे दर्शन देकर मेरे हृदय की ज्वाला शान्त नहीं करोगे?”

श्रीकृष्ण बोले, “यदि तुम हमें न मारने और हमारे आभूषण न छिनने की प्रतिज्ञा करो, तो हम प्रतिदिन यहाँ आ सकते हैं।” डाकू ने प्रतिज्ञा कर उनसे अगले दिन पुनः आने को कहा। श्रीकृष्ण उन्हें अपने आभूषण स्वयं उतारकर देने लगे। डाकू बोला, “अब गहनों की इच्छा तो नहीं है, किंतु आपकी बात टाली भी नहीं जाती। लेकिन आपके माता-पिता आपके शरीर पर गहने न होने पर आपको डांटेंगे तो नहीं?” श्रीकृष्ण बोले, “हम राजकुमार हैं और हमारे पास ऐसे बहुत सारे गहने हैं।” डाकू खुश होकर बोला, “तो फिर कल और गहने लेकर आना। लेकिन मैं आपके गहने न तो अपने हाथ से छिनूँगा और न ही लूँगा। आपको देने हैं तो मेरे दुपट्टे में बाँध दो।” कृष्णजी ने उसके दुपट्टे में गहने बाँधकर उसे देते हुए कहा, “कल फिर आना, कल और गहने देंगे।” डाकू प्रसन्नता भरे आश्चर्य से बोला, “कल भी दोगे? गहने चाहे न देना, लेकिन दर्शन देने जरुर आना।” “हाँ! हाँ! जरुर आएंगें? गहने भी देंगे और दर्शन भी”, यह कहकर कृष्ण-बलराम गौओं और ग्वालों के पीछे-पीछे चले गए।

डाकू प्रसन्नता से नाचता हुआ रात को पंडित जी के डेरे पर पहुँचा और उनके सामने गहनों की पोटली रख दी। बोला, “पंडित जी! देखो! कितने सारे गहने लेकर आया हूँ। आपका जितना मन हो उतने ले लो।, कल वह इनसे भी ज्यादा गहने लाएगा।” पंडित जी चकित होकर बोले, “मैं जिनकी कथा कहता हूँ, क्या तू उन कृष्ण-बलराम के ही गहने लाया है?” डाकू बोला, “और नहीं तो क्या? देखिए न यह सोने का मुकुट और यह सोने की वंशी!” पंडित जी उन अलौकिक आभूषणों को देखकर हक्के-बक्के रह गए। जो श्रीकृष्ण बड़े-बड़े योगी-तपस्वियों को सहस्र वर्ष तप करने पर भी नहीं मिलते, वे इस डाकू को एक ही दिन में कैसे मिल गए?

उन्होंने डाकू से अगले दिन उन्हें भी कृष्ण-बलराम के दर्शन के लिए ले चलने को कहा। अगले दिन दोनों प्रातःकाल से पहले ही उस स्थान पर पहुँच गए। डाकू ने पंडित जी को वृक्ष के पीछे छिपा दिया, कहीं उन्हें देखकर वे दोनों बालक न आएं। जैसे ही प्रातःकाल निकला, डाकू वंशी का मधुर स्वर आनंदित हो उठा, किन्तु पंडित जी को वह स्वर सुनाई ही नहीं दिया। कुछ देर में कृष्ण-बलराम दूर से आते दिखाई दिए, परंतु पंडित जी उन्हें न देख सके। पंडितजी डाकू से बोले, “मुझे तो दोनों बालक दिखाई नहीं दे रहे हैं। तुम श्रीकृष्ण से कहना कि आज जो देना चाहते हो, इन पंडित जी के हाथ पर दो।”

जब कृष्ण बलराम डाकू के पास आ गए तो उन्होंने उससे पूछा, “गहने लोगे?” डाकू पश्चातापपूर्ण स्वर में बोला, “नहीं! मैं गहने नहीं लूँगा। तुमने जो कल गहने दिए थे, उन्हें भी लौटाने को लाया हूँ। तुम ये सब वापस ले लो। किन्तु इन पंडित जी को अपने दर्शन करा दो, क्योंकि इन्हें तुम दोनों नहीं दिखाई दे रहे हो। अन्यथा ये मुझ पर विश्वास नहीं करेंगे।” श्रीकृष्ण बोले, “अरे भैया! ये विद्वान हैं, लेकिन अभी इनका हृदय प्रेम से रहित है। अतः अभी ये मेरे दर्शन के अधिकारी नहीं हैं।” डाकू बोला, “भाई! तुम मुझसे जो कहोगे वही करूँगा, लेकिन पंडितजी को एक बार अपने सुंदर रूप के दर्शन जरुर करा दो।”

श्रीकृष्ण हँसकर बोले, “ठीक है! तुम एक साथ पंडितजी और मुझे स्पर्श करो।” डाकू के ऐसा करते ही पंडितजी को दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई और उन्हें भी श्रीकृष्ण बलराम के दर्शन होने लगे। दोनों भगवान के सुखद स्पर्श से रोमांचित होकर उनके चरणों में गिर पड़े..!!

. *🙏जय श्री कृष्ण🙏*