“अमर फल का उपहार: प्रेम, वैराग्य और आध्यात्मिक ज्ञान”

हिंदी कहानियां अच्छी अच्छी राजा भर्तृहरि

पुराने जमाने में, एक समृद्ध और शक्तिशाली राजा भर्तृहरि का राज्य था। भर्तृहरि न केवल एक कुशल शासक थे बल्कि एक महान कवि भी थे। उनकी रचनाओं में जीवन के विभिन्न पहलुओं का वर्णन किया गया है। उनकी पत्नी, रानी, असाधारण रूपवती और आकर्षक थीं। भर्तृहरि ने उसकी सुंदरता और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर 100 श्लोक लिखे, जो बाद में ‘श्रृंगार शतक’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

इसी राज्य में एक ब्राह्मण भी निवास करता था, जो अपनी तपस्या और पूजा-पाठ के लिए प्रसिद्ध था। उसकी पूजा से प्रसन्न होकर देवताओं ने उसे एक अमर फल का वरदान दिया। इस फल को खाने से ब्राह्मण को लंबी उम्र और सदैव यौवन का वरदान मिलता। परंतु ब्राह्मण ने सोचा, “मैं तो भिक्षा मांग कर जीवन यापन करता हूँ, मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है?” उसने यह निश्चय किया कि यह फल राजा को दे देगा, ताकि राजा लंबे समय तक जीवित रहे और प्रजा का कल्याण कर सके।

ब्राह्मण ने वह फल राजा को समर्पित कर दिया। राजा भर्तृहरि इस उपहार से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने मन ही मन सोचा, “अगर मैं इस फल को खाऊंगा, तो मैं लंबी आयु प्राप्त करूंगा, परंतु मेरी पत्नी, जो मुझसे अधिक प्रिय है, मुझसे पहले ही मर जाएगी। उसके वियोग में मैं भी नहीं जी सकूंगा। बेहतर होगा कि मैं यह अमर फल उसे दे दूं, ताकि वह हमेशा युवा और सुंदर बनी रहे।”

इस विचार से प्रेरित होकर, राजा ने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया। लेकिन, रानी का हृदय किसी और के लिए धड़कता था। वह नगर के कोतवाल से प्रेम करती थी, जो कि अत्यंत सुदर्शन, बलवान और हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति था। रानी ने वह अमर फल कोतवाल को दे दिया और कहा, “इसे खा लो, यह तुम्हें अमर और सदा युवा बनाए रखेगा, जिससे तुम हमेशा मुझे प्रसन्न कर सकोगे।”

कोतवाल ने वह फल लिया और महल से बाहर निकलते ही सोचने लगा, “रानी से मेरा प्रेम सिर्फ दिखावा है। मैं उसके साथ केवल धन और ऐश्वर्य के लिए हूँ। इस फल का मेरे लिए कोई उपयोग नहीं है। क्यों न मैं इसे अपनी परम मित्र, राज नर्तकी को दे दूं? वह मुझसे सच्चा प्रेम करती है और कभी मेरी कोई बात नहीं टालती। अगर वह अमर और सदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी आनंद प्रदान कर सकेगी।”

कोतवाल ने वह फल राज नर्तकी को दे दिया। नर्तकी ने बिना कुछ कहे उस फल को स्वीकार कर लिया। लेकिन उसके मन में भी विचार उठे, “कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन लंबा जीना चाहेगा? हमारे देश का राजा बहुत अच्छा और न्यायप्रिय है, उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए।” उसने सोचा और किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया।

नर्तकी ने राजा से एकांत में मुलाकात की और अमर फल की महिमा बताते हुए वह फल फिर से राजा को लौटा दिया। राजा ने फल को देखते ही पहचान लिया और वे हतप्रभ रह गए। जब उन्होंने इस पूरी घटना की सच्चाई जानी, तो उनका मन संसार से विरक्त हो गया। उन्होंने तत्काल अपना राज्य छोड़ने का निर्णय लिया और जंगल में चले गए।

जंगल में रहते हुए उन्होंने जीवन की नश्वरता और वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे, जो ‘वैराग्य शतक’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। इस घटना ने उन्हें यह सिखाया कि संसार में हर व्यक्ति किसी न किसी से प्रेम करता है, परंतु दुर्भाग्यवश वह प्रेम कभी पूर्ण नहीं हो पाता। क्योंकि इस संसार में हर प्राणी अपूर्ण है, किसी में कोई न कोई कमी जरूर होती है।

लेकिन सिर्फ एक ही हैं जो पूर्ण हैं, वे हैं पुरषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण। वे एकमात्र ऐसे हैं जो हर जीव से उतना ही प्रेम करते हैं, जितना जीव उनसे करता है, बल्कि उससे भी कहीं अधिक। यह संसार की वास्तविकता है कि हम खुद ही उन्हें सच्चा प्रेम नहीं कर पाते।

हिंदी कहानियां अच्छी अच्छी राजा भर्तृहरि

कहानी के 10 महत्वपूर्ण सबक और गीता के उद्धरण:

  1. स्वार्थ से परे सोचें:
    • सबक: ब्राह्मण ने अपने स्वार्थ को त्यागकर अमर फल राजा को दे दिया, जिससे सामूहिक कल्याण सुनिश्चित हुआ।
    • गीता से उद्धरण:
      “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
      मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥”

      (भगवद् गीता 2.47)
      अर्थ: तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फलों में नहीं। इसलिए कर्म के फलों का इच्छुक नहीं होना चाहिए।
  2. वैराग्य का महत्त्व:
    • सबक: राजा ने अमर फल की सच्चाई जानकर वैराग्य अपनाया और संसारिक सुखों से दूर होकर आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हुए।
    • गीता से उद्धरण:
      “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
      नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
      तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
      न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥”

      (भगवद् गीता 2.22)
      अर्थ: जैसे व्यक्ति पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा भी पुराने शरीर को त्यागकर नए शरीर धारण करती है।
  3. सच्चा प्रेम और त्याग:
    • सबक: राजा ने अपनी पत्नी को अमर फल देकर सच्चे प्रेम और त्याग का परिचय दिया।
    • गीता से उद्धरण:
      “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
      अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥”

      (भगवद् गीता 4.7)
      अर्थ: जब भी धर्म की हानि होती है, तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।
  4. संसार की अपूर्णता:
    • सबक: कहानी में दिखाया गया है कि संसार के सभी प्राणी अपूर्ण हैं, जिसके कारण प्रेम भी अधूरा रहता है।
    • गीता से उद्धरण:
      “मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय
      शीतोष्णसुखदुःखदाः।
      आगमापायिनोऽनित्यास्ताम्
      विपश्चितामश्चरन्भवतः॥”

      (भगवद् गीता 2.14)
      अर्थ: हे कौन्तेय! स्पर्श से प्राप्त सुख-दुःख अनित्य और परिवर्तनशील हैं।
  5. परम मित्र और सच्चा संबंध:
    • सबक: कोतवाल ने अमर फल अपने सच्चे मित्र राज नर्तकी को देकर सही मित्रता का परिचय दिया।
    • गीता से उद्धरण:
      “मित्र एव हि धर्मसाधनम्।”
      (भगवद् गीता 18.68)
      अर्थ: मित्र ही धर्म प्राप्ति का साधन हैं।
  6. आत्मज्ञान का महत्व:
    • सबक: राजा ने अमर फल की सच्चाई जानकर अपने आत्मज्ञान को प्राप्त किया।
    • गीता से उद्धरण:
      “स्वधर्मे निधनं श्रेयः
      परधर्मो भयावहः॥”

      (भगवद् गीता 3.35)
      अर्थ: अपने धर्म में मृत्यु होना उत्तम है, पर अन्य धर्म का पालन भयावह है।
  7. धर्म और कर्तव्य:
    • सबक: ब्राह्मण ने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए समाज के कल्याण के लिए अमर फल को समर्पित किया।
    • गीता से उद्धरण:
      “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
      (भगवद् गीता 2.47)
      अर्थ: तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फलों में नहीं।
  8. सत्य और पहचान:
    • सबक: राजा ने तुरंत अमर फल की पहचान कर ली और सत्य की ओर अग्रसर हुए।
    • गीता से उद्धरण:
      “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
      अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥”

      (भगवद् गीता 4.7)
      अर्थ: जब धर्म की हानि होती है, तब मैं सत्य का सृजन करता हूँ।
  9. संपूर्ण प्रेम की अवधारणा:
    • सबक: कहानी में यह दिखाया गया है कि केवल परमात्मा ही संपूर्ण प्रेम कर सकते हैं, जबकि मनुष्य अपूर्ण हैं।
    • गीता से उद्धरण:
      “मा एव अधर्मः संवर्ज।”
      (भगवद् गीता 16.3)
      अर्थ: अधर्म को त्यागो।
  10. आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति:
    • सबक: राजा ने वैराग्य अपनाकर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया और वैराग्य शतक लिखे।
    • गीता से उद्धरण:
      “योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।
      सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥”

      (भगवद् गीता 2.48)
      अर्थ: योग में स्थित होकर कर्म करो, संसारिक बंधनों को त्याग दो। सिद्धि या असिद्धि में समान भाव रखो, यही योग कहलाता है।

निष्कर्ष:
यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम, त्याग, वैराग्य और आध्यात्मिक ज्ञान ही जीवन की सच्ची धरोहर हैं। गीता के उपदेश इस कहानी के प्रत्येक सबक को और भी गहराई प्रदान करते हैं, जो हमें आत्मज्ञान की ओर मार्गदर्शन करते हैं।