सपने में जगदम्बा ने अपना द्वार दिखाया है

सपने में जगदम्बा ने अपना द्वार दिखाया है

bhajan lyrics in hindi of mata सपने में जगदम्बा ने

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ऊँचे ऊँचे पर्वत गाए , हमको अपने पास बुलाये

किस्मत वाले होते हैं वो माँ जिनको आवाज लगाए

सपने में जगदम्बा ने अपना द्वार दिखाया है ,

आज तो रुकना मुश्किल हे माँ का बुलावा आया है

मेरी आँखों में जो देखि तूने पीड़ थोड़ी सी भी

हँस्ते हँस्ते माई तेरे नैना भरे हैं

तेरा जैसा कौन जग में जब चुभे हैं कांटे पग में

मुझसे पहले तेरे आंसू गिरे हैं

बेटा माँ को भूल भी जाये माँ ने कहाँ भुलाया है

आज तो रुकना मुश्किल है माँ का बुलावा आया है

सपने में जगदम्बा ने अपना द्वार दिखाया है ,

आज तो रुकना मुश्किल हे माँ का बुलावा आया है

पौड़ी पौड़ी चढ़ते जाओ कहते जाओ जय माता दी

पास बहुत हैं माँ का मंदिर सब दोहराओ जाओ जय माता दी

रुक न पाए न जयकारा सारे गाओ जय माता दी

पाँव के छाले बोल रहे हैं माँ के सिवा सब माया है

आज तो रुकना मुश्किल हे माँ का बुलावा आया है

सपने में जगदम्बा ने अपना द्वार दिखाया है ,

आज तो रुकना मुश्किल हे माँ का बुलावा आया है

सपने में जगदम्बा ने अपना द्वार दिखाया है

bhajan lyrics in hindi of mata सपने में जगदम्बा ने

Sapne Me Jagdamba Ne Apna Dwar Dikhaya Hai (New Bhakti Song 2024) Jubin Nautiyal

Audio Credits:
Music Composer – Payal Dev
Lyrics – Manoj Muntashir
Singer – Jubin Nautiyal
Music Programmed & Arranged By – Aditya Dev
Additional vocals & Keys played by Aditya Dev
Mix & Master – ADM Studioz
Music Label – T-Series

।। जय भगवान श्रीकृष्ण ।।

भगवान जगन्नाथ जी का ही स्वरूप माने जाने वाले महाकवि जयदेव द्वारा रचित महाकाव्य ‘गीत गोविन्द’ की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ? जिस पर रीझ कर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपने हाथ से पद लिख कर उसे पूरा किया।

जयदेव जी और उनकी पत्नी पद्मावती श्रीकृष्ण प्रेमरस में डूबे रहते थे। जयदेव जी को भगवान के दशावतारों के प्रत्यक्ष दर्शन हुए थे।

एक दिन भावावेश में जयदेव जी ने देखा कि यमुना तीर पर कदम्ब के नीचे भगवान श्रीकृष्ण मुरली हाथ में लिए मुसकरा रहे हैं। तभी उनके मुख से यह गीत निकला-

‘मेधैर्मेदुरमस्वरं वनभुव श्यामास्तमालद्रुमै।’

बस यहीं से ‘गीत गोविन्द’ काव्य का आरम्भ हो गया। इसमें प्रभु की श्रृंगार रस से पूरित ललित लीलाओं का वर्णन है। जयदेव जी जब ‘गीत गोविंद’ लिख रहे थे, तब एक बार उनके मन में श्रीराधिका के मान का प्रसंग आया। उसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी प्रिया के चरणकमलों को अपने मस्तक का भूषण बता कर प्रार्थना की कि इन्हें मेरे मस्तक पर रख दीजिए।

इस भाव का पद जयदेव जी के हृदय में आया पर उसे मुख से कहते हुए तथा अपनी पत्नी पद्मावती द्वारा ग्रंथ में लिखाते हुए वे सोच-में पड़ गए कि इस गुप्त रहस्य को कैसे प्रकट किया जाए ? इस कारण कविता का अन्तिम चरण (पंक्ति) पूरा नहीं हो पा रहा था।

जयदेव जी की पत्नी पद्मावती ने कहा- ‘अब स्नान का समय हो गया है, लिखना बन्द करके आप स्नान कर आएं।’

जयदेव जी ने कहा- ‘पद्मा ! मैंने एक गीत लिखा है, पर इसका अन्तिम चरण ठीक नहीं बैठता। मैं क्या करुँ ?’

पत्नी ने कहा- ‘इसमें घबराने की कौन-सी बात है, गंगा-स्नान से लौट कर शेष चरण लिख लीजियेगा।’

पत्नी के स्नान के लिए जाने पर जोर देने पर वे गंगा-स्नान को चले गए। कुछ ही मिनटों बाद जयदेव का वेष धारण कर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण आए और बोले- ‘पद्मा ! जरा ‘गीत गोविन्द’ देना।’

पद्मा ने आश्चर्यचकित होकर कहा- ‘आप स्नान करने गए थे न ? बीच से ही कैसे लौट आए ?’

महामायावी किन्तु भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- ‘रास्ते में ही अन्तिम चरण याद आ गया, इसी से लौट आया।’

पद्मावती ने कलम और दवात ला दिए। जयदेव-वेषधारी भगवान ने ‘देहि मे पदपल्लवमुदारम्’ लिखकर कविता पूरी कर दी। फिर पद्मावती से जल मंगाकर स्नान किया और पद्मावती के हाथ का भोजन ग्रहण कर पलंग पर विश्राम करने लगे।

पद्मावती भगवान की पत्तल में बचा प्रसाद पाने लगी। इतने में ही गंगा-स्नान करके जयदेव जी लौट आए। पति को इस प्रकार आते देखकर पद्मावती चौंक गयी। जयदेव भी पत्नी को भोजन करते देखकर आश्चर्यचकित हो गए।

जयदेव ने पूछा- ‘पद्मा, आज तुम मुझे भोजन कराए बिना कैसे भोजन कर रही हो ?’

पद्मावती ने कहा- ‘यह आप क्या कह रहे हैं ? आप कविता का शेष चरण लिखने के लिए रास्ते से ही लौट आए थे। कविता पूरी करने के बाद अभी तो स्नान-पूजन के बाद भोजन करके आप लेटे थे।’

जयदेव जी ने जाकर देखा, पलंग पर कोई नहीं सो रहा था। वे समझ गए आज अवश्य ही भक्तवत्सल भगवान की कृपा हुई है। फिर उन्होंने भगवान द्वारा लिखा कविता का शेष चरण देखा तो मन-ही-मन कहा- ‘यही तो मेरे मन में था, पर मैं संकोचवश लिख नहीं रहा था।’

फिर वे दोनों हाथ उठा कर रोते-रोते पुकारने लगे- ‘हे कृष्ण ! हे नंदनन्दन ! हे राधाबल्लभ ! हे ब्रजांगमाधव ! हे गोकुलरत्न ! हे करुणासिंधु ! हे गोपाल ! हे प्राणप्रिय ! आज किस अपराध से इस किंकर को त्याग कर केवल पद्मा का मनोरथ पूर्ण किया है ?’

इतना कहकर जयदेव जी पद्मावती की पत्तल से श्रीहरि का प्रसाद उठाकर खाने लगे। पद्मावती ने उन्हें अपनी जूठन खाने से रोका भी; पर प्रभु प्रसाद के लोभी जयदेव जी ने उसकी एक न सुनी।

इस घटना के बाद जयदेव जी संकोच छोड़ कर उसी गीत को गाते हुए मस्त घूमा करते और उस गीत को सुनने के लिए नंदनन्दन उनके पीछे-पीछे छिपकर चलते रहते थे।

भक्त का प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है, जिसमें बंधकर भगवान भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं। इस भगवत्प्रेम में न ऊंच है न नीच, न छोटा है न बड़ा। न मन्दिर है न जंगल। न धूप है न चैन। है तो बस प्रेम की पीड़ा; इसे तो बस भोगने में ही सुख है। यह प्रेम भक्त और भगवान दोनों को समान रूप से तड़पाता है।

एक बार एक माली की लड़की खेत में बेंगन तोड़ते हुए ‘गीत गोविन्द’ के पांचवे सर्ग की इस अष्टपदी को गा रही थी-

धीर समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली।
गोपीपीनपयोधरमर्दनचञ्चलकरयुगशाली।।

उसके मधुर गीत को सुनने के लिए भगवान जगन्नाथ उस लड़की के पीछे-पीछे घूमने लगे। उस समय भगवान ने अत्यंत महीन ढीली पोशाक धारण की हुई थी, जो कांटों में उलझ कर फट गई। लड़की का गाना खत्म होने पर जगन्नाथ जी मंदिर में पधारे तो उनके फटे वस्त्रों को देख कर पुरी का राजा, जो उनके दर्शन के लिए आया था, बड़ा आश्चर्यचकित हुआ।

राजा ने पुजारियों से पूछा- ‘ठाकुरजी के वस्त्र कैसे फट गए ?’

पुजारियों ने कहा- हमें तो कुछ मालूम नहीं, यह कैसे हुआ ?’

तब भगवान ने स्वयं सब बात पुजारी को स्वप्न में बता दी। राजा ने भगवान की ‘गीत गोविन्द’ के पदों को सुनने की रुचि जान कर उस बालिका को पालकी भेज कर बुलाया।

उस बालिका ने भगवान के सामने नृत्य करते हुए उसी अष्टपदी को गाकर सुनाया। तब से राजा ने मंदिर में नित्य ‘गीत गोविन्द’ के गायन की व्यवस्था कर दी। साथ ही पुरी में ढिंढोरा पिटवा दिया कि चाहे कोई अमीर हो या गरीब; सभी ‘गीत गोविंद’ की अष्टपदियों का इस भाव से गायन करें कि स्वयं सुगल सरकार श्रीराधाकृष्ण इसे सुन रहे हैं।

जगन्नाथपुरी के एक अन्य राजा ने श्रीकृष्ण-लीलाओं की पुस्तक बनवा कर उसका नाम भी ‘गीत गोविन्द’ रख दिया। राजा के चापलूस ब्राह्मण सब जगह यह प्रचार करने लगे कि यही असली ‘गीत गोविन्द’ है। असली पुस्तक का निर्णय करने के लिए दोनों ‘गीत गोविन्द’ की पुस्तकें भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर में रख दी गईं। दूसरे दिन जब पट खुले तो भगवान ने राजा की पुस्तक दूर फेंक दी और जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ की पुस्तक को अपनी छाती से चिपका रखा था।

यह देख कर राजा समुद्र में डूबने चला। तब भगवान ने आकाशवाणी की कि तुम समुद्र में मत डूबो। तुम्हारी पुस्तक के बारह श्लोक जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ के बारह सर्गों में लिखे जाएंगे; जिससे तुम्हारी प्रसिद्धि भी संसार में फैल जाएगी।

ऐसा माना जाता है कि ‘गीत गोविन्द’ की अष्टपदियों का जो कोई नित्य पठन और गान करे, उसकी बुद्धि पवित्र और प्रखर होकर दिन-प्रतिदिन बढ़ती है। साथ ही इन अष्टपदियों का जहां प्रेम से गायन होता है, वहां उन्हें सुनने के लिए श्रीराधाकृष्ण अवश्य विराजते हैं और प्रसन्न होकर कृपा-वृष्टि करते हैं।

छुप गये सारे नजारे ओय क्या बात हो गई

तेरे रहते क्यों झोली ये खाली है मां

माँ मेरी तुमसे लड़ाई है —

जो प्रेम गली में आए नहीं

काली कमली वाला मेरा यार है

बेलपत्ते ले आओ सारे

भोले मेरी कुटिया में आना होगा

चुन चुन लाई भोला फूल बेल पाती

मैं कैसे कावड़ चढ़ाऊं ओ भोले भीड़ बड़ी मंदिर में

बालू मिट्टी के बनाए भोलेनाथ

जग रखवाला है मेरा भोला बाबा

कैलाश के भोले बाबा 

कब से खड़ी हूं झोली पसार

भोले नाथ तुम्हारे मंदिर मेंअजब नजारा देखा है —

शिव शंभू कमाल कर बैठे

गोरा की चुनरी पे ओम लिखा है 

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