प्रेरक प्रसंग विद्यार्थियों के लिए short
एक बार देवर्षि नारद भगवान विष्णु के पास गए और उनसे सत्संग की महिमा सुनाने का अनुरोध किया। भगवान विष्णु मुस्कराते हुए नारद से बोले कि वे इमली के पेड़ के पास जाएँ, जहाँ उन्हें एक रंगीन प्राणी मिलेगा, जो सत्संग की महिमा जानता है और समझाएगा।
नारदजी इमली के पेड़ के पास पहुंचे और गिरगिट से सत्संग की महिमा के बारे में पूछा। सवाल सुनते ही गिरगिट पेड़ से नीचे गिर पड़ा और प्राण छोड़ दिए। आश्चर्यचकित नारदजी ने भगवान विष्णु को यह घटना सुनाई।
भगवान विष्णु ने मुस्कराते हुए नारद से कहा कि वे नगर के एक धनवान के घर जाएँ और वहाँ पिंजरे में बंद तोते से सत्संग की महिमा पूछें। नारदजी वहाँ पहुंचे और तोते से सत्संग का महत्व पूछा। थोड़ी देर बाद ही तोते की आँखें बंद हो गईं और उसके प्राणपखेरू उड़ गए।
नारदजी घबरा कर भगवान विष्णु के पास लौटे और पूछा कि क्या सत्संग का नाम सुनकर मरना ही सत्संग की महिमा है। भगवान हंसते हुए बोले कि उन्हें नगर के राजा के महल में जाना चाहिए और नवजात राजकुमार से सत्संग की महिमा पूछनी चाहिए।
नारदजी डरते हुए राजा के महल में पहुंचे, जहाँ उनका स्वागत किया गया। उन्होंने डरते-डरते राजा से नवजात राजकुमार के बारे में पूछा और राजकुमार के पास ले जाया गया। पसीने से तर होते हुए, मन-ही-मन श्रीहरि का नाम लेते हुए, नारदजी ने राजकुमार से सत्संग की महिमा के बारे में प्रश्न किया।
राजकुमार हंस पड़ा और बोला कि नारदजी अपनी महिमा नहीं जानते, इसलिए उनसे पूछ रहे हैं। राजकुमार ने बताया कि नारदजी के क्षणमात्र के संग से वह गिरगिट की योनि से मुक्त हो गया था और दर्शनमात्र से तोते की योनि से मुक्त होकर मनुष्य जन्म प्राप्त कर सका। नारदजी के सान्निध्य से उसकी कई योनियाँ कट गईं और वह राजकुमार बना। यह सत्संग का ही अद्भुत प्रभाव है।
राजकुमार ने नारदजी से आशीर्वाद मांगा कि वह मनुष्य जन्म के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सके। नारदजी ने खुशी-खुशी आशीर्वाद दिया और भगवान श्री हरि के पास जाकर सब कुछ बताया। भगवान ने कहा कि सचमुच, सत्संग की बड़ी महिमा है। संत का सही गौरव या तो संत जानते हैं या उनके सच्चे प्रेमी भक्त। इसलिए जब कभी मौका मिले, सत्संग का लाभ जरूर लेना चाहिए। क्या पता किस संत या भक्त के मुख से निकली बात जीवन सफल कर दे।
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श्रीकृष्ण की माया: सुदामा की कहानी
एक दिन श्रीकृष्ण ने कहा, “सुदामा, आओ, हम गोमती में स्नान करने चलें।” दोनों गोमती के किनारे गए, अपने कपड़े उतारे और नदी में प्रवेश किया। श्रीकृष्ण स्नान करके किनारे लौट आए और अपने पीले वस्त्र पहनने लगे। सुदामा ने एक और डुबकी लगाई, तभी श्रीकृष्ण ने उन्हें अपनी माया दिखाई।
सुदामा को लगा कि नदी में बाढ़ आ गई है। वह बहता जा रहा था, किसी तरह किनारे पर रुका। गंगा घाट पर चढ़कर वह चलने लगा। चलते-चलते वह एक गाँव के पास पहुँचा, जहाँ एक मादा हाथी ने उसे फूलों की माला पहनाई। बहुत से लोग इकट्ठा हो गए और बोले, “हमारे देश के राजा का निधन हो गया है। यहाँ की परंपरा है कि राजा की मृत्यु के बाद जिस किसी को मादा हाथी माला पहनाएगी, वही हमारा नया राजा बनेगा। मादा हाथी ने तुम्हें माला पहनाई है, इसलिए अब तुम हमारे राजा हो।”
सुदामा हैरान रह गया, लेकिन वह राजा बन गया और एक राजकुमारी से विवाह भी कर लिया। उनके दो बेटे भी हुए और उनका जीवन खुशी से बीतने लगा। एक दिन सुदामा की पत्नी बीमार हो गई और मर गई। पत्नी की मृत्यु के शोक में सुदामा रोने लगे। राज्य के लोग भी वहाँ पहुँचे और बोले, “राजा जी, मत रोइए। यह तो माया नगरी का नियम है। आपकी पत्नी की चिता में आपको भी प्रवेश करना होगा।”
यह कहानी महार्षि कंबन द्वारा तमिल भाषा में लिखित “इरामा-अवतारम” से ली गई है, जो वाल्मीकि रामायण और तुलसी रामायण में नहीं मिलती।
श्रीराम ने समुद्र पर पुल बनाने के बाद, महेश्वर-लिंग-विग्रह की स्थापना के लिए रावण को आचार्य के रूप में आमंत्रित करने के लिए जामवंत को भेजा। जामवंत ने रावण को यह संदेश दिया कि श्रीराम ने उन्हें आचार्य के रूप में नियुक्त करने का निर्णय लिया है। रावण ने इसे सम्मानपूर्वक स्वीकार किया।
रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बैठाकर श्रीराम के पास ले गया और खुद आचार्य के रूप में अनुष्ठान का संचालन किया। अनुष्ठान के दौरान, रावण ने श्रीराम से उनकी पत्नी के बिना अनुष्ठान पूरा नहीं होने की बात कही। तब श्रीराम ने सीता को अनुष्ठान में शामिल होने का आदेश दिया।
एक बार की बात है, एक गाँव था जहाँ भागवत कथा का आयोजन किया गया था। एक पंडित कथा सुनाने आया था जो पूरे एक सप्ताह तक चली। अंतिम अनुष्ठान के बाद, जब पंडित दान लेकर घोड़े पर सवार होकर जाने को तैयार हुआ, तो धन्ना जाट नामक एक सीधे-सादे और गरीब किसान ने उसे रोक लिया।
धन्ना ने कहा, “हे पंडित जी! आपने कहा था कि जो भगवान की सेवा करता है, उसका बेड़ा पार हो जाता है। लेकिन मेरे पास भगवान की मूर्ति नहीं है और न ही मैं ठीक से पूजा करना जानता हूँ। कृपया मुझे भगवान की एक मूर्ति दे दीजिए।”
पंडित ने उत्तर दिया, “आप स्वयं ही एक मूर्ति ले आइए।”
धन्ना ने कहा, “लेकिन मैंने तो भगवान को कभी देखा ही नहीं, मैं उन्हें कैसे लाऊँगा?”
उन्होंने पिण्ड छुडाने को अपना भंग घोटने का सिलबट्टा उसे दिया और बोले- “ये ठाकुरजी हैं ! इनकी सेवा पूजा करना।’
“सच्ची भक्ति: सेवा और करुणा का मार्ग”
एक समय की बात है, एक शहर में एक धनवान सेठ रहता था। उसके पास बहुत दौलत थी और वह कई फैक्ट्रियों का मालिक था।
एक शाम, अचानक उसे बेचैनी की अनुभूति होने लगी। डॉक्टरों ने उसकी जांच की, लेकिन कोई बीमारी नहीं मिली। फिर भी उसकी बेचैनी बढ़ती गई। रात को नींद की गोलियां लेने के बावजूद भी वह नींद नहीं पा रहा था।
आखिरकार, आधी रात को वह अपने बगीचे में घूमने निकल गया। बाहर आने पर उसे थोड़ा सुकून मिला, तो वह सड़क पर चलने लगा। चलते-चलते वह बहुत दूर निकल आया और थककर एक चबूतरे पर बैठ गया।
तभी वहां एक कुत्ता आया और उसकी एक चप्पल ले गया। सेठ ने दूसरी चप्पल उठाकर उसका पीछा किया। कुत्ता एक झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाके में घुस गया। जब सेठ नजदीक पहुंचा, तो कुत्ते ने चप्पल छोड़ दी और भाग गया।
इसी बीच, सेठ ने किसी के रोने की आवाज सुनी। वह आवाज एक झोपड़ी से आ रही थी। अंदर झांककर उसने देखा कि एक गरीब औरत अपनी बीमार बच्ची के लिए रो रही है और भगवान से मदद मांग रही है।
शुरू में सेठ वहां से चला जाना चाहता था, लेकिन फिर उसने औरत की मदद करने का फैसला किया। जब उसने दरवाजा खटखटाया तो औरत डर गई। सेठ ने उसे आश्वस्त किया और उसकी समस्या